मौद्रिक नीति का प्राथमिक उद्देश्य आर्थिक वृ्द्धि को ध्यान में रखते हुए कीमतों में स्थिरता को बनाए रखना होता है और इसे तैयार करते वक्त किसी भी देश के केंद्रीय बैंक को इन्हीं दोनों स्थितियों के बीच सामंजस्य बिठाने की चुनौती होती है। यह चुनौती तब और ज्यादा बड़ी हो जाती है, जब अर्थव्यवस्था में आर्थिक रिकवरी और महंगाई दोनों की स्थिति एक साथ उत्पन्न हो जाती है, जैसा कि अभी देखने को मिल रहा है।
नई दिल्ली (विश्वास न्यूज)। सार्वजनिक विमर्श के दौरान महंगाई के बारे में एक लोकप्रिय कथन का अक्सर उल्लेख किया जाता है। महंगाई एक ऐसा कर है, जिसे जनता पर लगाने के लिए किसी कानून को बनाए जाने की जरूरत नहीं होती है।
महंगाई आम तौर पर दो कारणों से बढ़ती है- या तो किसी चीज की डिमांड ज्यादा हो या सप्लाई कम हो। कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई और देशों को सप्लाई की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने माना कि ऊर्जा, खाद्य, गैर खाद्य वस्तुओं और इनपुट कीमतों में वृद्धि, आपूर्ति बाधाओं, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान और दुनिया भर में बढ़ती माल ढुलाई लागत की वजह से वैश्विक स्तर पर महंगाई में वृद्धि हुई है।
भारत समेत वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए महंगाई एक बड़ी चुनौती बन गई है। हाल ही में अमेरिकी महंगाई के आंकड़ें सामने आए, जो अभूतपूर्व स्थिति की तरफ इशारा कर रहा है। जून में अमेरिका में महंगाई दर 9.1% रही, जो 1981 के बाद सबसे ज्यादा है। भारत में भी जून में खुदरा महंगाई दर 7.01 फीसदी दर्ज की गई, जो पिछले महीने के 7.04 फीसदी के मुकाबले मामूली गिरावट को दर्शाता है। हालांकि, यह लगातार तीसरा महीना है, जब महंगाई दर 7 फीसदी से ज्यादा रही है, जो आरबीआई के 4 फीसदी (+/-2) के ऊपरी स्तर से अधिक है।
नीति निर्माण के स्तर पर महंगाई को काबू में रखना सबसे बड़ी चुनौती होती है। अमेरिका में ऐतिहासिक महंगाई दर को काबू में रखने के लिए फेडरल रिजर्व एक बार फिर से ब्याज दरों में इजाफा कर सकता है। भारत में भी रिजर्व बैंक ब्याज दरों में इजाफा कर चुका है और माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में भी दरों में इजाफे का क्रम जारी रहेगा। रिपोर्ट्स के मुताबिक यूरोपीय केंद्रीय बैंक 2011 के बाद से पहली बार ब्याज दरों में इजाफा करने की तैयारी में है।
भारत में यही काम केंद्रीय बैंक यानी भारतीय रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति के जरिए करता है। मौद्रिक नीति क्या है और यह कैसे काम करती है और इसका प्रभाव क्षेत्र क्या है, इस पर चर्चा से पहले यह समझना जरूरी है कि ऐसी नीति के जरिए आखिर काम क्या किया जाता है?
स्पष्ट शब्दों में कहें तो किसी भी अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति को लागू करने का काम वहां के केंद्रीय बैंक के जरिए किया जाता है और इसके दो मुख्य मकसद होते हैं-
भारत का केंद्रीय बैंक आरबीआई भी यही काम करता है। कोविड-19 की वजह से जब आर्थिक सुस्ती आई तो बैंक ने ब्याज दरों में ऐतिहासिक कटौती कर सस्ते कर्ज या नकदी की पर्याप्तता को सुनिश्चित करने की कोशिश की और जब महंगाई की स्थिति बनी तो बैंक ने ब्याज दरों को बढ़ाकर वित्तीय तंत्र से नकदी या तरलता को खींचना शुरू कर दिया, ताकि महंगाई को नियंत्रित किया जा सके।
आपको याद होगा कि आरबीआई ने 8 जून को अचानक से रेपो रेट में 50 आधार अंकों का इजाफा किया, जिसके बाद यह दर बढ़कर 4.90 फीसदी हो गया। महंगाई की वजह से एक महीने के भीतर आरबीआई ने लगातार दूसरी बार रेपो रेट में इजाफा करने का फैसला लिया।
आम तौर पर किसी एक स्थिति (महंगाई नियंत्रण या फिर आर्थिक वृद्धि गति देने) में केंद्रीय बैंक के लिए काम करना आसान होता है, लेकिन जब अर्थव्यवस्था सुस्ती या मंदी से बाहर निकल ही रही हो और उसी दौरान महंगाई भी बढ़ने लगे तब केंद्रीय बैंक के लिए विकास या महंगाई के बीच संतुलन बनाने की चुनौती आ जाती है और ऐसी परिस्थिति में ही मौद्रिक नीति की असली परीक्षा होती है। भारत का केंद्रीय बैंक फिलहाल ऐसी ही चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना कर रहा है।
मौद्रिक नीति बनाने के लिए 2016 में आरबीआई एक्ट में संशोधन किया गया और इसके बाद यह पहली बार होगा जब आरबीआई महंगाई नियंत्रण के अपने लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहा है। लगातार तीन तिमाहियों के दौरान औसत महंगाई को न्यूनतम 2 और अधिकतम 6 फीसदी के दायरे में रखना आरबीआई की मुख्य जिम्मेदारी है।
2016 में आरबीआई एक्ट में संशोधन के बाद केंद्र सरकार की तरफ से जारी अधिसूचना में 5 अगस्त 2016 से 31 मार्च 2021 तक 4 फीसदी (+-2%) महंगाई दर (सीपीआई) का लक्ष्य रखा गया था। यानी आरबीआई को महंगाई दर को न्यूनतम 2 फीसदी और अधिकतम 6 फीसदी के बीच रखना था।
31 मार्च 2021 को केंद्र सरकार ने 1 अप्रैल 2021 से 31 मार्च 2026 तक के लिए इस लक्ष्य को बरकरार रखे जाने का फैसला किया है। यानी अगले पांच साल तक आरबीआई को चार फीसदी (अधिकतम 6 फीसदी और न्यूनतम 2 फीसदी) महंगाई दर को बनाए रखना है।
भारत समेत दुनिया के किसी भी केंद्रीय बैंक की प्राथमिक जिम्मेदारी महंगाई दर को नियंत्रण में रखने की होती है। यही काम आरबीआई का भी है और उसके पास कुछ ऐसे टूल होते हैं, जिसकी मदद से वह महंगाई को तय सीमा में रखने के लिए इस्तेमाल करता है और यह काम मौद्रिक नीति के स्पष्ट और परिभाषित ढांचे के जरिए किया जाता है।
अक्सर न्यूज रिपोर्ट्स में आप इस बारे में सुनते होंगे कि महंगाई को रोकने के लिए या ग्रोथ को सपोर्ट देने के लिए मौद्रिक नीति समिति की बैठक में दरों को बढ़ाने या घटाने का फैसला लिया गया। आरबीआई अधिनियम की धारा 45जेडबी छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के गठन का प्रावधान करता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि मई 2016 में आरबीआई एक्ट, 1934 को संसोधित किया गया था, ताकि महंगाई नियंत्रण ढांचे को बनाने के लिए आरबीआई को वैधानिक आधार प्रदान किया जा सके।
मौद्रिक नीति समिति का गठन पहली बार 29 सितंबर 2016 को किया गया था और अभी इस समिति में आरबीआई के गवर्नर समेत कुल 6 सदस्य हैं। यही समिति पॉलिसी रेपो रेट को तय करने का काम करती है, जिसका काम महंगाई लक्ष्य को हासिल करना होता है।
कानून के मुताबिक, साल में कम से कम चार बार इस बार समिति की बैठक अनिवार्य है और समिति के प्रत्येक सदस्यों के पास एक वोट का अधिकार होता है और अगर किसी फैसले को लेकर मत बराबर हो जाएं तो गवर्नर के पास दूसरा मत डालने का अधिकार होता है।
अक्सर न्यूज रिपोर्ट्स में आपको यह सुनने को मिलता होगा कि एमपीसी ने रेपो रेट या अन्य दरों को बढ़ाने या घटाने का फैसला सर्वसम्मति से लिया तो उसका संदर्भ यही होता है।
*आम तौर पर मौद्रिक नीति समिति सर्वसम्मति से नीतिगत दरों को बढ़ाने या घटाने का फैसला लेती है। 8 जून को जब आरबीआई ने रेपो रेट में 50 आधार अंकों का इजाफा करने का फैसला किया तो एमपीसी यानी मौद्रिक नीति समिति के सभी सदस्यों ने एकमत से इसका समर्थन किया था।
समिति के सभी सदस्यों को प्रस्तावित रिजॉल्यूशन के पक्ष में या समर्थन में वोट करने का लिखित बयान देना होता है। इस तरह से यह समिति अपना काम करती है।
गौरतलब है कि 5 अगस्त 2016 को केंद्र सरकार ने गजट के जरिए 4 फीसदी कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) का लक्ष्य तय किया था, जिसमें अधिकतम सीमा 6 फीसदी और न्यूनतम सीमा 2 फीसदी (4+_2फीसदी) होगी। 2021 में इस अवधि के समापन होने के बाद केंद्र सरकार ने 31 मार्च 2021 को 1 अप्रैल 2021 से 31 मार्च 2026 तक के लिए इसी महंगाई लक्ष्य को बरकरार रखे जाने का फैसला लिया है।
चूंकि मौद्रिक समिति का मुख्य काम महंगाई को तय किए गए दायरे में रखना होता है और अगर वह ऐसा करने में असफल हो जाए तो क्या होगा?
आरबीआई एक्ट के मुताबिक, अगर महंगाई दर लगातार तीन तिमाहियों तक ऊपरी स्तर (6 फीसदी) से अधिक या फिर वह निचले स्तर (2 फीसदी) से नीचे के स्तर पर बनी रहे तो तो इसे मौद्रिक नीति की विफलता माना जाएगा। ऐसी स्थिति में केंद्रीय बैंक आरबीआई केंद्र सरकार को रिपोर्ट बनाकर भेजेगा, जिसमें
2022-23 के लिए आरबीआई ने महंगाई के अनुमानित लक्ष्य में 100 आधार अंकों का इजाफा करते हुए उसे 6.7 फीसदी कर दिया है, लेकिन इसके बावजूद आरबीआई तीन तिमाहियों तक खुदरा महंगाई दर को 2-6 फीसदी के दायरे में रख पाने में विफल साबित हुआ है।
और अब आरबीआई एक्ट, 1934 के मुताबिक, बैंक को केंद्र सरकार को विस्तृत रिपोर्ट सौंपनी होगी।
रिपोर्ट के इस हिस्से में इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि महंगाई को नियंत्रण में रखने के लिए आरबीआई किन टूल्स का इस्तेमाल करता है और उसके क्या प्रभाव होते हैं। वैसे तो आरबीआई के पास मौद्रिक नीति को लागू करने के लिए कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष उपकरण होते हैं, लेकिन महंगाई को नियंत्रित करने और आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए वह मुख्य रूप से कुछ अहम टूल्स या उपकरण का इस्तेमाल करता है।
तकनीकी तौर पर समझें तो यह वह ब्याज दर होती है, जिसे पर आरबीआई लिक्विड एडजस्टमेंट फैसिलिटी (एलएएफ) के तहत सभी भागीदारों को तरलता मुहैया कराता है।
स्पष्ट और आसान शब्दों में समझें तो रेपो रेट वह दर होती है, जिस पर आरबीआई बैंकों को कर्ज मुहैया कराता है। बैंकों को अपनी रोजाना की बैकिंग गतिविधियों के लिए बड़ी रकम की जरूरत होती है और इसे पूरा करने के लिए वे केंद्रीय बैंक यानी आरबीआई से कर्ज लेते हैं। इस कर्ज पर जो ब्याज दर वह चुकाते हैं, उसे ही रेपो रेट कहा जाता है।
रेपो रेट के सस्ता होने का मतलब यह है कि बैंकों के लिए कर्ज की लागत कम होगी और वह ग्राहकों को भी सस्ते में कर्ज दे पाएंगे। इस तरह ग्राहकों को अपने कर्ज के बदले अपेक्षाकृत सस्ती ईएमआई का भुगतान करना होगा। रेपो रेट में इजाफे का मतलब बैंकों के लिए कर्ज जुटाने की लागत का महंगा होना है और फिर बैंक ग्राहकों को भी महंगे दर पर कर्ज की पेशकश करेंगे, जिससे उनकी ईएमआई ज्यादा हो जाएगी।
तकनीकी तौर पर यह वह ब्याज दर है जिसके जरिए रिजर्व बैंक बैंकों से नकदी को वापस लेता है। यानी रोजाना की बैंकिंग गतिविधियों के बाद जो रकम बैंकों के पास बच जाती है, उसे वह आरबीआई के पास जमा कर देते हैं और इस रकम पर उन्हें जो ब्याज मिलता है, उसे रिवर्स रेपो रेट कहा जाता है।
वित्तीय तंत्र में नकदी जब अधिक बढ़ जाती है तो रिवर्स रेपो रेट को बढ़ाकर आरबीआई बैंकों की नकदी को अपने पास खींच लेता है। बैंक ज्यादा ब्याज दर के लिए आरबीआई के पास रकम को जमा कर देते हैं और फिर कर्ज बांटने के लिए उपलब्ध रकम में कमी आ जाती है और धीरे-धीरे बाजार से तरलता की स्थिति कम होने लगती है।
यह वह रकम है, जिसे बैंकों को आरबीआई के पास जमा रखना अनिवार्य होता है और यह रकम बैंक की कुल मांग और देनदारी (एनडीटीएल) का एक निश्चित हिस्सा होता है। आरबीआई समय-समय पर गजट के जरिए इस दर के बारे में अधिसूचित करते रहता है।
सीआरआर में इजाफे का मतलब यह होगा कि बैंकों को अपनी पूंजी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा रखना होगा। इससे बैंकों को कर्ज देने के लिए उपलब्ध पूंजी में कमी का सामना करना पड़ सकता है।
सीआरआर घटाए जाने का मतलब यह होगा कि बाजार में नकदी की मात्रा बढ़ जाएगी। अभी यह दर 4.50% है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में तरलता के अनुपात को नियंत्रित करने के लिए यह महत्वपूर्ण उपकरण है। यह बैंको के पास उपलब्ध जमा पूंजी का वह हिस्सा होता है, जो उन्हें इस पूंजी पर लोन जारी करने से पहले अपने पास रखना अनिवार्य होता है।
यह नकदी, सरकारी प्रतिभूतियों, स्वर्ण भंडार के रूप में हो सकता है। अभी एसएलआर की दर 18% है।
बैंकिंग तंत्र में तरलता या नकदी को पंप करने या उसे खींचने के लिए आरबीआई इस उपकरण का सहारा लेता है और इस प्रक्रिया के तहत सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद या बिक्री की जाती है।
वह दर है, जिस पर बैंक अपनी जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से एक दिन यानी बेहद कम अवधि के लिए आरबीआई से कर्ज लेते हैं। आम तौर पर यह दर रेपो रेट से 25 आधार अंक अधिक होती है।
सारांश: मौद्रिक नीति का प्राथमिक उद्देश्य आर्थिक वृ्द्धि को ध्यान में रखते हुए कीमतों में स्थिरता को बनाए रखना होता है और इसे तैयार करते वक्त किसी भी देश के केंद्रीय बैंक को इन्हीं दोनों स्थितियों के बीच सामंजस्य बिठाने की चुनौती होती है। यह चुनौती तब और ज्यादा बड़ी हो जाती है, जब अर्थव्यवस्था में आर्थिक रिकवरी और महंगाई दोनों की स्थिति एक साथ उत्पन्न हो जाती है, जैसा कि अभी देखने को मिल रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था कोविड-19 के दुष्प्रभावों से रिकवर कर ही रही थी कि रूस-यूक्रेन युद्ध समेत अन्य बाह्य कारणों से उसे महंगाई का भी सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
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