Fact Check:कैंसर को बीमारी नहीं बल्कि फंगस बताने वाले वायरल पोस्ट का दावा भ्रामक है

Fact Check:कैंसर को बीमारी नहीं बल्कि फंगस बताने वाले वायरल पोस्ट का दावा भ्रामक है


नई दिल्ली (विश्वास न्यूज)। कैंसर से जुड़े दावे को लेकर सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हो रही है। इस पोस्ट में दावा किया जा रहा है कि कैंसर एक बीमारी नहीं बल्कि फंगस है जिसे मयोटॉक्सिन (myotoxin) कहा जाता है।  इस पोस्ट में आगे दावा किया गया है कि कीमोथेरेपी मस्टर्ड गैस पॉइजन है। इसमें यह भी दावा किया गया है कि अल्केलाइन फूड आपको कैंसर से दूर रखते हैं और शरीर के पीएच लेवल को अल्केलाइन रखते हैं। इसके मुताबिक आपके शरीर में मौजूद एसिड कैंसर फंगस के बढ़ने के लिए जिम्मेदार है। विश्वास न्यूज के पड़ताल में ये दावे भ्रामक पाए गए हैं।

क्या है वायरल पोस्ट में?

Patriot Jaye Citizens Investigative Journalism नाम के फेसबुक पेज पर एक पोस्ट शेयर की गई है। इसमें लिखा है, ‘कैंसर कोई बीमारी नहीं बल्कि मयोटॉक्सिन नाम का एक फंगस है। कीमोथेरेपी मस्टर्ड गैस पॉइजन है। सेहतमंद लोगों को गलत तरीके से कैंसर से पीड़ित बताया जाता है ताकि डॉक्टरों को बड़ी फार्मा कंपनियों से बड़ा बोनस मिल सके। अल्केलाइन फूड आपको कैंसर से बचाता है और आपकी बॉडी के पीएच लेवल को एसिडी की बजाय अल्केलाइन रखता है। आपकी बॉडी PhD में मौजूद एसिड आपके कैंसर फंगस को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होता है और ये कीमोथेरेपी पॉइजन पर निर्भर होता है।’

पड़ताल

विश्वास न्यूज ने वायरल पोस्ट के दावों को कई हिस्सों में बांट कर अपनी पड़ताल शुरू की।

क्लेम 1: कैंसर बीमारी नहीं मयोटॉक्सिन नाम का फंगस है

हमने इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के आंकोलॉजिस्ट डॉक्टर मनीष सिंघल से बात की। उन्होंने इस दावे को खारिज कर दिया कि कैंसर बीमारी ने मयोटॉक्सिन नाम का फंगस है। उन्होंने कहा, ‘कैंसर रोगियों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है इसलिए वे फंगल इंफेक्शन का शिकार जल्दी हो जाते हैं। मयोटॉक्सिन टॉक्सिक कंपाउंड होते हैं जो खास तरह की फुंगी से प्राकृतिक तौर पर पैदा होते हैं। कैंसर और मयोटॉक्सिन का आपस में कोई संबंध नहीं है।’

हमने आगे अपनी पड़ताल जारी रखी। हमें कैंसर रिसर्च यूके की वेबसाइट पर एक आर्टिकल मिला। इसके मुताबिक कैंसर सेल फंगल प्रकृति के नहीं होते। इसके अलावा बहुत सारे स्वस्थ लोग भी कैंडिडा इंफेक्शन का शिकार हो सकते हैं। यह बहुत सामान्य प्रकार के रोगाणु हैं जो हम सभी के शरीर में रहते हैं। सामान्य स्थिति में रोग प्रतिरोधक क्षमता इसे नियंत्रित रखती है लेकिन जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है उनपर इंफेक्शन का गंभीर असर पड़ता है।

क्लेम 2: कीमोथेरेपी मस्टर्ड गैस पॉइजन है

इस दावे पर डॉक्टर मनीष सिंघल ने कहा, ‘विश्वयुद्ध के दौरान रासायनिक युद्ध में इस्तेमाल किए गए मस्टर्ड गैस से पहला कीमो बना। इसके बाद कीमोथेरेपी में काफी बदलाव हुए। उदाहरण के तौर पर, जीआई कैंसर, स्तन कैंसर, फेफड़ों के कैंसर और सभी महिला अंगों के कैंसर में इस्तेमाल किए जाने वाला पैक्लिटैक्सेल को टैक्सस ब्रेविफोलिया (एक पेड़ की छाल) से हासिल किया गया लेकिन इसमें भी काफी बदलाव हुए हैं।

विश्वास न्यूज ने इसकी पड़ताल की और हमें ‘द गार्जियन’का एक आर्टिकल मिला। इस आर्टिकल के मुताबिक, ‘मस्टर्ड गैस का सबसे पहले इस्तेमाल प्रथम विश्व युद्ध में हुआ था। हालांकि बाद में जिनेवा कन्वेंशन के तहत इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके बावजूद 2000 से अधिक नाइट्रोजन मस्टर्ड बम- 100 टन पॉइजन को इटली के बेस बारी में लंगर डाले अमेरिकी जहाज में गुप्त रूप से रखा गया।

बाद में रासायनिक युद्ध विशेषज्ञ आए और उन्होंने पोस्टमार्टम के आदेश दिए जिसके नतीजे काफी चौंकाऊ थे: इस पॉइजन से मरे लोगों में काफी कम लिंफ और बोन मैरो सेल थे।

उस समय कैंसर एक पहेली था। तब मौजूद जानकारियां बस इतनी ही थीं कि कैंसर सेल्स नॉर्मल सेल्स के मुकाबले काफी तेजी से बढ़ती हैं। द डोज मेक्स द पॉइजन (किसी भी चीज का ज्यादा इस्तेमाल जहर होता है)“the dose makes the poison” के सिद्धांत के हिसाब से वैज्ञानिकों ने सोचा कि क्या नाइट्रोजन मस्टर्ड की कम मात्रा कैंसर के इलाज के काम आ सकती है या नहीं। इस तरह से कीमोथेरेपी का जन्म हुआ।‘  इस आर्टिकल के मुताबिक पहली बार किसी मरीज का इलाज साइक्लोफॉस्फेमाइड (नाइट्रोजन मस्टर्ड का एक्टिव हिस्सा) से किया गया और उसका ट्यूमर सिकुड़ता हुआ पाया गया। यह ऐसी चीज थी जिसकी उस समय कल्पना तक नहीं की गई थी।

हमें हिस्ट्री ऑफ कैंसर कीमोथेरेपी पर विकीपीडिया पेज भी मिला। इसके मुताबिक, ‘आधुनिक समय के कैंसर कीमोथेरेपी की शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मन के केमिकल युद्ध से सीधे जोड़कर देखा जा सकता है। उस दौरान जिन केमिकल एजेंट का इस्तेमाल हुआ उनमें खासकर मस्टर्ड गैस विनाशकारी थी।’

क्लेम 3: अल्केलाइन फूड्स आपको कैंसर से बचाते हैं

डॉक्टर मनीष सिंघल के मुताबिक, ‘हमारा नैचुरल बॉडी पीएच अल्केलाइन (क्षारीय) है। बॉडी होमोस्टैसिस पीएच को 7.35 से 7.45 के बीच रखती है। आप चाहे जितना अल्केलाइन लीजिए खून का पीएच स्तर नहीं बदलेगा। अल्केलाइन में होने वाले अधिकतर बदलाव पैथलॉजिकल होते हैं। अल्केलाइन फूड कैंसर सेल या होने वाली कैंसर सेल (अगर हम कैंसर से बचाव की बात करें तो) तक केवल खून के माध्यम से ही पहुंचेंगे। लेकिन आप केवल अल्केलाइन फूड खाकर पीएच में बदलाव नहीं ला सकते।’

Healthline.comमें पब्लिश एक आर्टिकल के मुताबिक ऐसा कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है जो इस विचार की पुष्टि करता हो कि अल्केलाइन पानी कैंसर का इलाज या इससे बचाव कर सकता है। खास प्रकार के फूड या लिक्विड्स का सेवन कर खून के पीएच लेवल में बदलाव लाना करीब-करीब असंभव है।

निष्कर्ष

कैंसर को बीमारी न बता मयोटॉक्सिन नाम का फंगस बताने का दावा झूठा है। दूसरा दावा यह है कि कीमोथेरेपी, मस्टर्ड गैस पॉइजन है। हालांकि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हुए केमिकल वॉर में इस्तेमाल की गई मस्टर्ड गैस से पहले कीमो का आविष्कार हुआ लेकिन तबसे लेकर आजतक कीमोथेरेपी में काफी बदलाव आए हैं। यह दावा भी भ्रामक है कि अल्केलाइन फूड्स आपको कैंसर से बचाते हैं।

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